दोस्तों आज का लेख योगशास्त्र में मुद्रा (Mudra) का अर्थ एवं परिभाषा के बारे में है। इस लेख में आप जान पायेंगे कि मुद्रा का अर्थ क्या है? मुद्रा की परिभाष क्या होती है? मुद्रा का उद्देश्य क्या है? और मुद्राओं के अभ्यास की तयारी कैसे की जाती है? तो चलिए शुरू करते है –
मुद्रा का अर्थ – Meaning of Yoga Mudra in Hindi
हठयोग में मुद्रा और बन्ध (Bandha) का स्थान तीसरा है। मुद्रा शब्द की निष्पत्ति ‘मुदहर्षे’ धातु में ‘रक’ प्रत्यय लगाने से हुई है। जिसका अर्थ है – ‘प्रसन्नदायिनी स्थिति’। योगिक ग्रंथों में मुद्रा का अर्थ प्रायः अंगों के द्वारा विशिष्ट भावाभिव्यकित के रूप में लिया गया है।
स्थूल रूप से चित्त के विशेष भाव को मुद्रा कहते है। यौगिक ग्रंथों में जिन मुद्वाओं का वर्णन मिलता है, वे चित्त के विशेष भाव एवं प्राण की अवस्थाओं की घोतक है।
यौगिक ग्रंथों में कहा गया है कि यदि कोई अभ्यासी लंबे समय तक किसी मुद्रा का अभ्यास करता है तो वह उस मुद्रा को प्राप्त कर लेता है। क्योंकि शरीर और मन में उसी प्रकार की स्थिति, उसी प्रकार के उद्वेग, संवेदना उप्तन्न होने लगती है।
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मुद्रा की परिभाषा – Definition of Yoga Mudra in Hindi
इसकी परिभाषा को इस प्रकार से समझा जा सकता है-
“आसन, प्राणायाम एवं बांध की सम्मलित वह विशिष्ट स्थिति जिसके द्वारा उच्च आध्यात्मिक शक्ति का जागरण संभव हो, मुद्रा कहलाती है।”
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मुद्रा का उद्देश्य – Purpose of Yoga Mudra
आध्यात्मिक साधना की दृस्टि से मुद्रा एवं बंध का मुख्य उद्देश्य कुंडलिनी शक्ति का जागरण करना होता है। इसके अतिरिक्त आंतरिक अवयवों को नियंत्रित कर अभ्यासी साधक अपने शरीर की अन्तः स्रावी ग्रंथियों को प्रभावित करता है।
जिनके स्राव से साधक की शरीरिक एवं मानसिक स्थिति और सुदृढ़ होती है। मुद्रा के अभ्यास से स्थिरता आती है।
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मुद्राओं के अभ्यास की तैयारी – Preparing for the Practice of Mudras
मुद्रा के अभ्यास से पूर्व उपयुक्त आसान प्राणायम एवं बंधों का अभ्यास भली प्रकार करना आवश्यक है।
प्राणयाम में पूरक, रेचक एवं कुम्भक का सही अनुपात का अभ्यास जरूरी है।
नाड़ीशोधन प्राणयाम का अभ्यास तीन से चार माह तक करना आवश्यक है।
आसन, प्राणयाम एवं बंधों के अभ्यास दृढ़ होने पर हठयौगिक मुद्राओं का अभ्यास करना उचित होता है।
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मुद्रा अभ्यास के सिद्धांत – Principles of Mudras Practice
अभ्यासी व्यकित को निम्न सिद्धांतों पर ध्यान देना चाहिए
अभ्यास का स्थान स्वच्छ, शांत, हवादार एवं शाधनोपयोगी होना चाहिए।
पहले सरल मुद्राओं का अभ्यास करें फिर धीरे धीरे जटिल की ओर बढ़ना चाहिए।
अभ्यास आरंभ हेतु सबसे उपयुक्त ऋतु वसंत (Spring Season) का होता है।
सूर्योदय से पूर्व एवं सूर्यास्त के समय अभ्यास का उपयुक्त काल होता है।
अभ्यास किसी मार्गदर्शक के निर्देशन में ही शुरू करना चाहिए।
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